गंगोत्री शहर धीरे धीरे उस मन्दिर के इर्द गिर्द विकसित हुआ है जिसका इतिहास 700 वर्ष पुराना है, इसके पहले भी कई सदियों से यह मंदिर हिन्दुओं के लिए आध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत बना हुए है। क्युकी पुराने काल में चारधामों की तीर्थ यात्रा पैदल हुआ करती थी तथा उन दिनों इसकी चड़ाई दुर्गम थी इसलिए वर्ष 1980 के दशक में गंगोत्री की सड़क बनी और तब से शहर का विकास द्रुत गति से हुआ।
गंगोत्री शहर तथा मंदिर इतिहास अभिन्न रूप से जुड़ा है। प्राचीन काल में यह मन्दिर नहीं था। भागीरथी शिला के निकट एक मंच था जहां यात्रा मौसम के तीन चार महीनों के लिए देवी देवताओं की मूर्तियां रखी जाती थी इन मूर्तियों को गावों के विभिन्न मंदिरों जैसे श्याम प्रयाग, गंगा प्रयाग, धराली तथा मुखबा आदि गांवों से लाया जाता था जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने eighteen वी सदी में गंगोत्री मन्दिर का निर्माण इसी जगह किया जहां राजा भगीरथ ने तप किया था। मंदिर में प्रबंध के लिए सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गांवों से पंडों को भी नियुक्त किया। इसके पहले टकनौर के राजपूत ही गंगोत्री के पुजारी थे। माना जाता है कि जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने twenty वी सदी में मंदिर की मरम्मत करवाई ।
पौराणिक संदर्भ
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्री रामचन्द्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। पवित्र शिलाखंड के निकट ही 18वी शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। एसी मान्यता है कि देवी भागीरथी नें इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। एसी भी मान्यता है कि पांडवों ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति के निमित स्थान पर आकर एक महान देव का यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यह पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार twenty फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। दर्शक मंदिर की भव्यता एवं शुचिता देखकर सम्मोहित हुए बिना नहीं रहते।
शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। यह दृश्य अत्यधिक मनोहर एवं आकर्षक है। इसके देखने से दैवी शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौराणिक
आख्यानों के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओं को फैला कर बैठ गए और उन्होंने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओं में लपेट दिया। शीतकाल के आरंभ में
जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते हैं।
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