नंदा देवी राज जात कई वर्षों से चमोली जिले में मनाई जाती है तथा अन्य भी जिलों मनाई जाती है। नंदा राज जात हर 12वर्षों बाद मनाई जाती है।खतरनाक पहाड़ी चढ़ाई वाले रास्तों से गुजरने वाली यह दुर्गम यात्रा न केवल पैदल तय करनी होती है बल्कि fifty three किमी तक इसमें नंगे पांव भी चलना होता है। हालांकि सन् 2000 की राजजात यात्रा में काफी परिवर्तन आ गये है। पिछली बार इसमें कुछ साहसी महिलाऐं भी शामिल हुयी हैं। मगर अनुसूचित जाति के लोग इसमें शामिल होने का साहस अब तक नहीं जुटा पाये। इतिहासकारों के अनुसार धार्मिक मनोरथ की पूर्ति और इस यात्रा को सफल बनाने के लिये प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्धित कर दी गयी। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा काफी समय तक चलती रही। इतिहासकार डॉ॰ शिवप्रसाद डबराल और डॉ॰ शिवराज संह रावत ”निसंग” के अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और twenty five भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। नन्दा देवी राजजात के बारे में उत्तराखण्ड के विभिन्न खण्डों में गढ़वाल का इतिहास लिखने वाले प्रख्यात इतिहासकार डॉ॰ शिप्रसाद डबराल ने ”उत्तराखण्ड यात्रा दर्शन” में लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। ब्रिटिश काल से पहले प्रति बारह वर्ष नन्दा को नरबलि देने की प्रथा थी। बाद में इस प्रथा को बन्द कर दिया गया मगर ”दूधातोली प्रदेश में भ्रमण के दौरान मुझे सूचना मिली कि उत्तर गढ़वाल के कुछ गावों में अब नर बलि ने दूसरा रूप धारण कर लिया। प्रति twelve वर्ष में उन गावों के सयाने लोग एकत्र हो कर किसी अतिवृद्ध को नन्दा देवी को अर्पण करने के लिये चुनते हैं। उचित समय पर उसके केश, नाखून काट दिये जाते हैं। उसे स्नान करा कर तिलक लगाया जाता है, फिर उसके सिर पर नन्दा के नाम से ज्यूंदाल (चांवल, पुष्प, हल्दी और जल मिला कर) डाल देते हैं। उस दिन से वह अलग मकान में रहने लगता है और दिन में एक बार भोजन करता है। उसके परिवार वाले उसकी मृत्यु के बाद होने वाले सारे संस्कार पहले ही कर डालते हैं। वह एक वर्ष के अन्दर ही मर जाता है।“
धन्यवाद
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