टिहरी और गढ़वाल अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया। जहां टिहरी बना है शब्द ' त्रिहरी ' से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्थान जो तीन तरह के पाप ( जो जन्मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्द बना है 'गढ़ ' से, जिसका मतलब होता है जिला। सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे गढ़ों में विभाजित था, जिसमें अलग अलग राजा राज करते थे जिन्हें राणा, राय, या ठाकुर के नाम से जाना जाता था। इसका पुराना नाम गणेश प्रयाग कहा जाता था।
मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ के दर्शन के लिए आए जहां वे पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही सारा राज्य उन्हें दे दिया। धीरे धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियां एक एक कर सभी गढ़ जीत कर अपना राज्य बड़ाती गई। तरह से सन् 1803 तक सारा गढ़वाल क्षेत्र इनके कब्जे में आ गया ।
उन्हीं सालों में गोरखाओं के नाकाम हमले भी होते रहे, लेकिन सन् 1803 में आखिर देहरादून की लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्युमन शाह मारे गए। लेकिन उनके सहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस वक्त छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिए गए। धीरे धीरे गोरखाओं का शासन बढ़ता गया और उन्होंने 12 साल तक राज किया। इनका राज कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को राजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कंपनी की मदद से गोर्खाओं से अपना राज्य पुनः चीन लिया।
इस्ट इंडिया कंपनी ने फिर कुमाऊं, देहरादून और पूर्व (इस्ट) गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्चिम गढ़वाल सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टिहरी रियासत के नाम से जाना गया।
राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेंद्र शाह ने इस राज्य की राजधानी कर्मशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेंद्र नगर स्थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन् 1949 तक राज किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहां के लोगों ने भी बड़ चड़कर हिस्सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्त होने की इच्छा बलवती होने लगी। माहाराजा के लिए भी अब राज करना मुश्किल होने लगा।और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन् 1949 में टिहरी राज्य को उत्तरप्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया। बाद में 24 फरवरी 1960 में उत्तरप्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक और जिला बना दिया गया।
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मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ के दर्शन के लिए आए जहां वे पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही सारा राज्य उन्हें दे दिया। धीरे धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियां एक एक कर सभी गढ़ जीत कर अपना राज्य बड़ाती गई। तरह से सन् 1803 तक सारा गढ़वाल क्षेत्र इनके कब्जे में आ गया ।
उन्हीं सालों में गोरखाओं के नाकाम हमले भी होते रहे, लेकिन सन् 1803 में आखिर देहरादून की लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्युमन शाह मारे गए। लेकिन उनके सहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस वक्त छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिए गए। धीरे धीरे गोरखाओं का शासन बढ़ता गया और उन्होंने 12 साल तक राज किया। इनका राज कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को राजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कंपनी की मदद से गोर्खाओं से अपना राज्य पुनः चीन लिया।
इस्ट इंडिया कंपनी ने फिर कुमाऊं, देहरादून और पूर्व (इस्ट) गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्चिम गढ़वाल सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टिहरी रियासत के नाम से जाना गया।
राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेंद्र शाह ने इस राज्य की राजधानी कर्मशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेंद्र नगर स्थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन् 1949 तक राज किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहां के लोगों ने भी बड़ चड़कर हिस्सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्त होने की इच्छा बलवती होने लगी। माहाराजा के लिए भी अब राज करना मुश्किल होने लगा।और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन् 1949 में टिहरी राज्य को उत्तरप्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया। बाद में 24 फरवरी 1960 में उत्तरप्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक और जिला बना दिया गया।
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